है मुन्तजिर नहीं ये किसी के बखान की
ये शायरी ज़बां है किसी बेज़बान की
होने लगा है मुझको गुमां कहता हूँ ग़ज़ल
मैं धूल भी नहीं हूँ अभी इस जुबान की
ढूँढा किये हैं ज़िन्दगी को झुक के ख़ाक में
यूँ मिल गयी है शक्ल कमर को कमान की
जिसमे खिली हुई वो कली भा गयी मुझे
करता हूँ मैं सताइश उसी फूलदान की
धिक्कारती है रूह, इसी वज्ह, शर्म से
आँखें झुकी रही हैं सदा बेईमान की
जिसमे मुझे ही दफ्न किया चाहते थे वो
उनको है चाह आज मेरे उस मकान की
खाते रहे जो छीन कर औरों की रोटियाँ
होने लगी है फ़िक्र उन्हें भी किसान की
ये शायरी ज़बां है किसी बेज़बान की
होने लगा है मुझको गुमां कहता हूँ ग़ज़ल
मैं धूल भी नहीं हूँ अभी इस जुबान की
ढूँढा किये हैं ज़िन्दगी को झुक के ख़ाक में
यूँ मिल गयी है शक्ल कमर को कमान की
जिसमे खिली हुई वो कली भा गयी मुझे
करता हूँ मैं सताइश उसी फूलदान की
धिक्कारती है रूह, इसी वज्ह, शर्म से
आँखें झुकी रही हैं सदा बेईमान की
जिसमे मुझे ही दफ्न किया चाहते थे वो
उनको है चाह आज मेरे उस मकान की
खाते रहे जो छीन कर औरों की रोटियाँ
होने लगी है फ़िक्र उन्हें भी किसान की
आप की लेखनी से एक और शानदार ग़ज़ल| बधाई तिवारी जी
ReplyDeleteधिक्कारती है रूह, इसी वज्ह, शर्म से
ReplyDeleteआँखें झुकी रही हैं सदा बेईमान की
badhiyaa