जहां मुंसिफ ही मुझसे सरगिरां है
वहाँ इन्साफ का इम्काँ कहाँ है
परिंदे कब तलक रहते कफस में
अब उनकी ज़द में सारा आसमां है
शजर कब तक बचेंगे दश्त में अब
रुतों का भी असर जब रायगाँ है
नहीं शिकवा करेगा टूटकर भी
मेरा दिल भी मुझी सा बेजुबां है
तवक्को थी हमें भी रहमतों की
तवज्जोह पर तेरी जाने कहाँ है
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