वास्तविकता कल्पना में मूलतः अंतर यही है
एक दिखती भी नही और दूसरी सबको मिली है
बीत जाती है यही सच जानने में उम्र सारी
तीरगी तो तीरगी है रोशनी तो रोशनी है
मैं अकेला चल पड़ा हूँ देखने, क्या है सफर में
मंजिलों की बात क्या उनसे हमारी कब बनी है
ज़िंदगी थक सी गयी है ज़िंदगी की खोज में खुद
एक वीराना बिछाकर ज़िंदगी अब सो रही है
मर गयीं सम्वेदानाएं, बेअसर हैं आज आँसू
पीर इनकी आज आँखों में सिमट कर रह गयी है
zindgi kasi hae pahli....man ko bhati aapki kavita
ReplyDeleteथैंक्स पूनम जी.
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