जब ग़ज़ल का हर अहम मिसरा अहं से चूर है
क्या करे शायर बिचारा वह बहुत मजबूर है
भागता है सूए सहरा आब की ख्वाहिश लिए
है नहीं मंजिल, समझता है कि मंजिल दूर है
था गुमां, मैं भी बनूँगा मीर, पुर जोशे निहाँ
पर कम इल्मी से हर ऐसा ख्वाब चकनाचूर है
क्या बिना उस्ताद बन सकता है कोई फन शनास
ताब से खुरशीद की महताब भी पुरनूर है
नक्श पाए रहनुमा होते तेरे पेशे नज़र
फख्र से कहता मेरी ग़ज़लों में दम भरपूर है
वाह पहली बार पढ़ा आपको बहुत अच्छा लगा.
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