सुर्ख होठों को सुखाती गर्मियों की वो दुपहरी
जो सुराही जल पिलाती थी हमें ठंढा, तपन में
खुद पसीने में थी भीगी गर्मियों की वो दुपहरी
ज़िंदगी की आग में तप के जो सोना हो चुका है
फूल टेसू के खिले लगते थे दावानल सरीखे
और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी
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आग सी ले ताप आई गर्मियों की वो दुपहरी
वो लिपे कमरे की ठंढक और सोंधी सी महक भी
बंद हो कमरे में काटी गर्मियों की वो दुपहरीजो सुराही जल पिलाती थी हमें ठंढा, तपन में
खुद पसीने में थी भीगी गर्मियों की वो दुपहरी
ज़िंदगी की आग में तप के जो सोना हो चुका है
क्या असर उस पर दिखाती गर्मियों की वो दुपहरी
फूल टेसू के खिले लगते थे दावानल सरीखे
और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी
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शेष धर जी ... उतना ही मज़ा दे रही है जितना पंकज जी के ब्लॉग पर मिला ...
ReplyDeleteवाह भाई जी.... आप भी खूब चुटकी लेते हैं.
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