आसमां में छेंद करके देख लूं उस पार मैं
इस नियति को क्यों बिना जाने करूँ स्वीकार मैं
रात बाकी है अभी उसको मनाने के लिए
जीत की उम्मीद है तो मान लूं क्यूँ हार मैं
इस नियति को क्यों बिना जाने करूँ स्वीकार मैं
रात बाकी है अभी उसको मनाने के लिए
जीत की उम्मीद है तो मान लूं क्यूँ हार मैं
बाप बनकर आज मैं सोचूंगा बेटी की व्यथा
बन भगीरथ करूँगा गंगा का अब उद्धार मैं
एक बादल सामने हो, ताप सूरज का घटे
मेघ दुःख के हैं घिरे तो क्यों रहूँ बेजार मैं
मौत की चादर पे मुझको नींद भी आती नहीं
ज़िंदगी की लाश पे रोया किया हर बार मैं
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