Monday, April 21, 2014

दर्द अगर खुद दवा नहीं होता

दर्द अगर खुद दवा नहीं होता 
जख्म कोई भरा नहीं होता 

तुम तसव्वुर में जब नहीं होते 
तब भी क्यूँ दूसरा नहीं होता 

ज़द पे जब हो नहीं कोई मंज़िल 
रास्ता रास्ता नहीं होता 

इसकी फितरत है सामने आना 
सच पसे आइना नहीं होता 

ज़र्द पत्ते हमें बताते हैं 
पेड़ हरदम हरा नहीं होता 

अश्क़ अफशां नहीं रहे होते 
घर किसी का बचा नहीं होता 

बच के चलता जो खुद-परस्ती से 
आदमी यूँ गिरा नहीं होता 

दर्द है ज़ख्म का रफ़ीक़ ऐसा 
जो कभी बेवफा नहीं होता 

मैं जर्रों की तरह हल्का नहीं हूँ

किसी की आँख में चुभता नहीं हूँ 
मैं जर्रों की तरह हल्का नहीं हूँ 

अभी हालात से बिखरा नहीं हूँ 
मगर सच ये भी है यकजा नहीं हूँ 

चमक मुझमे भी है खुर्शीद जैसी 
मगर मैं चाँद पर हँसता नहीं हूँ 

कोई देखे मेरे दिल में उतर कर 
समंदर हूँ मगर खारा नहीं हूँ 

फना होना है तेरे आरिजों पर 
मैं पलकों से यूँ ही गिरता नहीं हूँ 

अगर दुश्मन है तो तस्लीम कर ले 
की मैं दिल में तेरे रहता नहीं हूँ 

तुम्हारी चाह में खुद को मिटा दूँ 
समंदर! मैं कोई दरिया नहीं हूँ 

मौत का इंतज़ार क्या करना

मौत का इंतज़ार क्या करना 
ज़िंदगानी को ख्वार क्या करना 

क्यूँ लगाऊँ मैं तुहमतें तुझपर 
चाँद को दागदार क्या करना 

क़र्ज़ मुझपे हैं जब तेरे आँसू 
तेरी खुशियाँ उधार क्या करना 

सामने दागदार चेहरों के 
आइना बार बार क्या करना 

हर इबारत है खतकसीदा जब 
फिर अहम का शुमार क्या करना 

रूबरू मेरे तुम नहीं हो जब 
आँख पर ऐतिबार क्या करना 

जब जड़ें हैं ज़मीन में गहरे तक 
फिरते बर्गो बार क्या करना 

जो न खुद का भी हो सका उसपर 
ज़िंदगी को निसार क्या करना