Saturday, November 10, 2012

कुछ सहमे कुछ गूंगे शब्दों में एहसास पिरोता हूँ

कुछ सहमे कुछ गूंगे
शब्दों में एहसास पिरोता हूँ

अभिलाषाओं की चादर से 
मुह ढक कर मैं रोता हूँ   
आज लेखनी थकी हुई
कुछ कहने को आतुर भी है
मेरे मन में
सधे, सहेजे भावों का अंकुर भी है
मैं फटही चादर के नीचे
सिंह द्वार पर सोता हूँ
कुछ सहमे कुछ गूंगे
शब्दों में एहसास पिरोता हूँ

मेरे शब्दों को पढ़कर
कुछ रोते, कुछ मुस्काते हैं
कुछ अपनी अंधी, उदास
मानवता को उकसाते हैं
मैं निराश-जन के मन में
आशा के अंकुर बोता हूँ
कुछ सहमे कुछ गूंगे
शब्दों में एहसास पिरोता हूँ

मुझको लूटा राजाओं ने
पूजा चन्द फकीरों ने
आजादी मुझको दी है
कुछ वीरों की शमशीरों ने
उनके अहसानों का बोझ उठाता  हूँ,
खुश होता हूँ
कुछ सहमे कुछ गूंगे
शब्दों में एहसास पिरोता हूँ




Tuesday, November 6, 2012

तुम्हारी ज़ुल्फ़ चेहरे पर बिखर जाती तो क्या होता

तुम्हारी  ज़ुल्फ़ चेहरे पर बिखर जाती तो क्या होता
हसीं  मुस्कान पर बिजली सिहर जाती तो क्या होता

तुहारी नाक के मोती से छिटकी इक किरन कोई
किसीके दिल से होकर जो गुजर जाती तो क्या होता

तुम्हारे रूप पर होकर फ़िदा ठहरी तुम्हारी वय
कहीं  कुछ साल पहले ही ठहर जाती तो क्या होता

चढी जो जिस्म के जीने से शीतल चांदनी तुम पर
तुम्हारे  नूर पर वो आह भर जाती तो क्या होता

तुहारे सुर्खरू कोमल कपोलों से हिना लेकर
उषा अपना अगर श्रृंगार कर जाती तो क्या होता

तुहारी याद में जो जी रहा है, जेह्न से उसके
मुहब्बत की खुमारी जो उतर जाती तो क्या होता