Tuesday, May 29, 2012

उनके हक़ में खुदकुशी का फैसला मैं क्यूँ करूँ


फिर मुहब्बत की उसी से इल्तिजा मैं क्यूँ करूँ
उसके हक़ में खुदकुशी का फैसला मैं क्यूँ करूँ

जान कर अनजान बन बैठा है जब मेरा खुदा
रूबरू उसके ग़मों का तज़किरा मैं क्यूँ करूँ

गर ये सच है, ज़िंदगी राहे सफर है मौत तक
ज़िंदगी और मौत में फिर फासला मैं क्यूं करूँ

खार बनकर बारहा आता रहा जो राह में
सामने उसके ही पाए आबला मैं क्यूँ करूँ

हाँथ में जब है नहीं मेरे, मुक़द्दर की लकीर
फिर नसीबों नेमतों का आसरा मैं क्यूँ करूँ

तेरे बन्दों को बहुत मुश्किल है समझाना खुदा
एक ही तू है तो नामों से जुदा मैं क्यूँ करूँ


















Saturday, May 26, 2012


जहां मुंसिफ ही मुझसे सरगिरां है

वहाँ इन्साफ का इम्काँ कहाँ है 




परिंदे कब तलक रहते कफस में

अब उनकी ज़द में सारा आसमां है




शजर कब तक बचेंगे दश्त में अब

रुतों का भी असर जब रायगाँ है




नहीं शिकवा करेगा टूटकर भी

मेरा दिल भी मुझी सा बेजुबां है




तवक्को थी हमें भी रहमतों की

तवज्जोह पर तेरी जाने कहाँ है

























Tuesday, May 15, 2012

न कहना मुहब्बत का मुश्किल सफ़र है



न कहना मुहब्बत का मुश्किल सफ़र है
इसी राह पर एक उनका भी घर है

किसी पर भरोसा नही कर सकेगा
अगर तेरे दिल में अगर या मगर है

अंधेरे को देखे सुने खामुशी को
नही सब में होता ये ऐसा हुनर है

नही अब मुझे डर है इन्सां से कोई
खुदा ही बना जब मेरा मोतबर है

मुक़ाबिल कभी मुफलिसों के न आना
कि उनको नही कुछ भी खोने का डर है

समंदर के हैं दोनों हाँथों में लड्डू
जो सोये तो साहिल उठे तो क़मर है

Friday, May 4, 2012

मेरी तो ज़िंदगी से मौत हार मान कर गयी
नही है डर कोई भी मेरी ज़िंदगी संवर गयी

बड़ी अजीब सी कशिश है उसकी नफरतों में भी
न उसने क़ैद ही किया न तो रिहा ही कर गयी

निगाह अब अमान पर नही करो कभी खमी
उड़ा दिये कबूतरों को हम जिधर नज़र गयी

हमें न ज़िंदगी न मौत ही दिया रकीब ने
उसी को मौत दी जो करके मुझको दरबदर गयी

किसे किसे बता दिया खुदा हसीन ये हुनर
हर एक सख्स कह रहा है ज़िंदगी गुजर गयी

फक़त फ़कीर को पता है अस्ल ज़िंदगी है क्या
अमीर ढूँढता रहा है ज़िंदगी किधर गयी

न इब्तिदा न इंतिहा में मुब्तला रहा मगर
शरीर बारहा मुझे ही दागदार कर गयी

हमें है रश्क साहिलों से, क्या नसीब है मिला
कि चूम कर उन्हें समन्दरों की हर लहर गयी

मुझे वो राह ढूंढनी है जिस पे राहबर न हों
हयात रहजनो को ही बना के राहबर गयी