Wednesday, August 31, 2011

दुष्यंत कुमार जन्मदिन १ सितम्बर

वह कथन को भाव देकर सादगी से कह गया
शब्द को अभिव्यक्ति देकर वह उसी में बह गया


आज उस दुष्यंत को कहते हैं ग़ज़लों का मसीह
जो जहां की निगह में तब आम इन्सां रह गया


आज हर अशआर उसके लग रहे कितने सटीक
आने वाले कल की बातें बीते कल में कह गया


चौधराहट थी नहीं मंजूर भाषा पर उसे
अपनी धुन की रौ में जाने तंज़ कितने सह गया


आज उसके जन्मदिन पर ले रहे हैं यह शपथ
पूरा होगा ख़्वाब उसका जो अधूरा रह गया

शेष धर तिवारी
१ सितम्बर २०११
दुष्यंत कुमार जी का जन्मदिन

Tuesday, August 30, 2011

है मुन्तजिर नहीं ये किसी के बखान की
ये शायरी ज़बां है किसी बेज़बान की


होने लगा है मुझको गुमां कहता हूँ ग़ज़ल
मैं धूल भी नहीं हूँ अभी इस जुबान की


ढूँढा किये हैं ज़िन्दगी को झुक के ख़ाक में
यूँ मिल गयी है शक्ल कमर को कमान की


जिसमे खिली हुई वो कली भा गयी मुझे
करता हूँ मैं सताइश उसी फूलदान की        


धिक्कारती है रूह, इसी वज्ह, शर्म से
आँखें झुकी रही हैं सदा बेईमान की


जिसमे मुझे ही दफ्न किया चाहते थे वो
उनको है चाह आज मेरे उस मकान की


खाते रहे जो छीन कर औरों की रोटियाँ
होने लगी है फ़िक्र उन्हें भी किसान की


हमारा ही लहू पीकर जो लालम लाल हैं देखो 
वही सड़कों को कहते ओम् जी के गाल हैं देखो  

जब इनके सामने हमने रखा इक आईना, भडके 
विशेष अधिकार का लेकर खड़े अब ढाल हैं देखो 

किरन जब भी निकलती है अँधेरा दूर होता है 
ये नादां रोशनी पर फेंकते अब जाल हैं देखो 

समझते थे जिसे थोथा चना वो बन गया "अन्ना" 
ये पागल नोचते अब हर किसी के बाल हैं देखो 

कहावत है कि "घूरे के भी दिन फिरते हैं" नेताजी 
जहीं जो हैं बदल लेते खुद अपनी चाल हैं देखो 

Saturday, August 20, 2011

अगर तुमने कभी उठाया होता
जिम्मेदारियों का बोझ
तो तुम्हे पता होता
कि पसीने में बदबू नहीं होती
अगर तुमने कभी
कचरे से निकाल कर
खाया होता
रोटी का सूखा टुकड़ा
तो तुम्हे पता होता कि
भूख वादों के निवालों से नहीं मिटती
अगर तुमने बहाए होते कभी
बेबसी के आंसू
तो सत्ता के गुरूर में
तुम्हारी गर्दन नहीं अकड़ती
ऐसा भी क्या सत्ता का गुरूर
कि सामान्य शिष्टाचार भी
नहीं रहा याद
ध्यान से देखा नहीं तुमने
कि जब तुम्हारी एक उंगली
कर रही थी इशारा मेरी ओर
तो तीन तुम्हारी तरफ ही थीं
अब तो तुम्हे पता चल चुका होगा
कि जनशक्ति क्या होती है
तुम्हारी एक उंगली को भी
कैसे उसने तुम्हारी ओर ही मोड दिया
समय आ गया है
आत्म मंथन करने का
अस्थाई सत्ता को भूल
सार्वभौम सत्ता को याद करने का
उससे ऊपर नहीं हो तुम
इसे स्वीकार करने का


शेष धर तिवारी

Friday, August 19, 2011

अब हमें मैदान में खुद भी उतरना चाहिए
बेइमानों के इरादों को कुचलना चाहिए



खेतों की मिट्टी लिपट जाती है जिनके पैरों  से
उनको ही उन खेतों का भगवान कहना चाहिए



बीज मिल जाता है मिट्टी में मिटा अपना वजूद
फ़स्ल मिलती है तभी, हमको समझना चाहिए


गर महकना चाहते हो फूल सा हर सिम्त तुम
तो तुम्हे कांटो में भी खिलकर मचलना चाहिए


क्यूँ करें उम्मीद छाये की किसी भी ठूंठ से
खुद करें छाया, हमें अब धूप सहना चाहिए

Tuesday, August 16, 2011

ज़िंदगी मौत से आज लड़ने को है
ज्यूँ समंदर से दरिया उलझने को है


आखिरश खामुशी चुप रहे कब तलक
आज लगता है कुछ मुझसे कहने को है


सब गए छोड़ कर फिर भी मशरूफ हूँ
मेरी तनहाई मुझसे झगड़ने को है


हमसफ़ीरों मेरे अब रहो दूर ही
सब्र का बाँध मेरे दरकने को है


दो मुआफ़ी मुझे दिल अजीजों मेरे
जिस्म ख्वाबीदा कांधो पे चढ़ने को है


वक़्त आया उठे अब जनाज़ा मेरा
आख़िरी कील अब इसमें  लगने को है


जिनके काँधों पे गुस्ताख मैं सो रहा
वो हुजूम आज पैदल ही चलने को है

Wednesday, August 10, 2011

जुगनुओं की रोशनी से तीरगी घटती नहीं

जुगनुओं की रोशनी से तीरगी घटती नहीं
चाँद हो पूनम का चाहे पौ मगर फटती नहीं

ज़िंदगी में गम नहीं तो ज़िंदगी का क्या मजा
सिर्फ खुशियों के सहारे ज़िंदगी कटती नहीं

जैसी मुश्किल पेश आये कोशिशें वैसी करो
आसमां पर फूंकने से बदलियाँ छंटती नहीं

गर मिजाज़ अपना रखें नम दूसरों के वास्ते
शख्सियत अपनी किसी भी आँख से हटती नहीं

झूठ के बल पर कोई चेहरा बगावत क्या करे
आईने की सादगी से झूठ की पटती नहीं

Friday, August 5, 2011

मुहब्बत हो गयी है शायरी से



बहुत बेज़ार थे हम ज़िंदगी से
मुहब्बत हो गयी है शायरी से

नहीं है कोई शिकवा अब किसी से
मुहब्बत हो गयी है शायरी से

हमारा नाम दरवाजे पे उनके
लिखा होगा कभी हर्फे जली से

ज़नाजे को उठाना तो अज़ीजों
गुजरना ले के तुम उनकी गली से

हुए जाते हैं मुझसे दूर जैसे
निकाले कोई कस्तूरी जबी* से मृग, हिरन

उदासी का सबब उनसे जो पूछा
हिलाया सर बड़ी ही सादगी से

बहुत छोटे बड़े देखे जहां में
खुदा मुझको मिला इक आदमी से

घुटा जाता हैं दम कुदरत का देखो
हमारी खुदपरस्ती, बेहिसी* से लापरवाही

फकत कुछ मोहरे बदले हैं लोगों
अवाम अब भी नहीं बदली रिही* से दास, गुलाम

हो अख्लाकन सही पर रंज में भी
मिला करता हूँ मैं दरियादिली से

बता दे चाँद को औकात उसकी
दिखा चेहरा निकल कर तीरगी से

हमें इंसान क्यूँ कहते नहीं हैं
चलो पूंछें ये पंडित मौलवी से

उदासी ओढकर सोयेंगे कब तक
नहीं होते खफा यूँ ज़िंदगी से

लिपट कर मुफलिसी की चादरों में
निकलती है गरीबी हर गली से

किसी दिन धूप को मुट्ठी में लेकर
करूँगा मैं ठिठोली तीरगी से

मेरे हिस्से में बादल हैं कहाँ अब
नहीं है साबका मेरा नमी से

गिरा अब तक नहीं ये आसमां क्यूँ
जमीर ईमां सदाकत की कमी से

चले इस आस में हम सूये सहरा
मिले राहत वहीं पर तश्नगी से

भुला दे किस तरह माजी को अपने
मुहब्बत है उसे दिल की लगी से

अगर इखलास है उल्फत में अपनी
मिला करता खुदा खुद आदमी से

नहीं हो आसमां जब उसके माफिक
कफस में बैठती चिड़िया खुशी से

मैं हूँ औलाद आदम की, डरूं क्यूँ
है हक जन्नत पे,मांगूं क्यूँ किसीसे

दिला दो गर यकीं अपनी खुशी का
मैं दुनिया छोड़ दूं अपनी खुशी से

दिखा दे यार मेरे मुस्कराकर
घुटा जाता है दम संजीदगी से

हम अपनी मौत को ठुकरा चुके है
हमारा कौल था कुछ ज़िंदगी से

धड़कना बंद कर दे दिल जो मेरा
सुकूं मिल जाए इसको बेकली से

अज़ाबे ज़िंदगी हैरत ज़दा है
बुझी है आग पलकों की नमी से

महल में होती गर मेरी रहाइश
तो होते दूर हम भी हर खुशी से

उसी के पास है ईमां की दौलत
लडा करता है जो फांकाकशी से

ये आंसू बेअसर है संगदिल पर
जमी पत्थर पे भी काई नमी से