Tuesday, June 28, 2011

लेखनी अंगार लिखती है

जरूरत पर यकीनन लेखनी अंगार लिखती है
नहीं तो ये मुहब्बत के मधुर अशआर लिखती है

जो अपनी जान देकर भी हमें महफूज़ रखते हैं 
ये उन जाबांज वीरों के लिए आभार लिखती है

मुहब्बत करने वालों से है इसका कुछ अलग रिश्ता
कभी इकरार लिखती है कभी इनकार लिखती है

अगर हो जाए अपना भी कोई इस देश का दुश्मन 
बिना संकोच के ये उस को भी गद्दार लिखती है 

लड़ाते हैं हमें अपनों से, ठेकेदार मजहब के
दिलों को जोड़ने के वास्ते ये प्यार लिखती है

जो अपने घर को अपना घर समझते ही नहीं, उनको 
समझती नासमझ औ मानसिक बीमार लिखती है

ये मेरी लेखनी ही है मैं जिसके साथ जीता हूँ
यही तो है जो मेरे मन के सब उद्गार लिखती है

Saturday, June 18, 2011

गर्मियों की वो दुपहरी

सुर्ख होठों को सुखाती गर्मियों की वो दुपहरी
आग सी ले ताप आई गर्मियों की वो दुपहरी 

वो लिपे कमरे की ठंढक और सोंधी सी महक भी 
बंद हो कमरे में काटी गर्मियों की वो दुपहरी

जो सुराही जल पिलाती थी हमें ठंढा, तपन में
खुद पसीने में थी भीगी गर्मियों की वो दुपहरी

ज़िंदगी की आग में तप के जो सोना हो चुका है
क्या असर उस पर दिखाती गर्मियों की वो दुपहरी

फूल टेसू के खिले लगते थे दावानल सरीखे
और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी

   
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Wednesday, June 1, 2011

सच को सच कहता हूँ, घबराता नहीं

सच को सच कहता हूँ, घबराता नहीं
झूठ मुझको  बोलना आता नहीं 

सच न बोले गर तो ऐसा दोस्त भी 
फूटी आँखों भी मुझे भाता नहीं 

गर कमी है कोई मुझमे, बोलिए 
मान लूँगा, डर से है नाता नहीं

मैं नहीं हूँ कोई ऋषि मुनि, इस लिए  
मानुषी कमियों से बच पाता नहीं 

सांच को लगती न कोई आंच है 
पर सभी को सत्य पच पाता नहीं 

सत्य हो कड़वा अगर तो सोचिये 
यह अप्रिय हो तो सहा जाता नहीं 

सच करो स्वीकार, मिलता है सुकूं
इस लिए मैं सच से घबराता नहीं