Friday, April 29, 2011

गर्म है लोहा, हथौड़ा मार दो

हाँथ जोड़ आयेंगे फिर, फटकार दो
गर्म है लोहा, हथौड़ा मार दो

क्यों संपेरा फिर बनाएँ सांप को
घर पिटारे का इन्हें उपहार दो

तंग है जनता गरीबी भूख से
प्याज रोटी का उसे सत्कार दो

आँख मछली की नहीं दिखती जिन्हें
तीर क्यों उनको ही बारम्बार दो

ले लुआठी वोट की मत घर जला
मान्यवर को आख़िरी संस्कार दो

याद मुझको भी पहाडा तीन तक
मेरे हिस्से में भी भ्रष्टाचार दो

अब बुजुर्गों, हाँथ जब चलता नहीं
नौजवां को देश की पतवार दो

मैं हूँ वेटर से प्रमोटेड कैशियर
देश की पूंजी मुझी पर वार दो

Tuesday, April 26, 2011

धुंधलका

अगर तुमने मुझे रस्ते से भटकाया नहीं होता
तो मैंने मंजिले मक़सूद को पाया नहीं होता

हमारी मुफलिसी पर रूह गर कोसे तो समझाना
की मेरे जैसों की किस्मत में सरमाया नहीं होता

ख़याल आता अगर डरते हो मुस्तकबिल से तुम मेरे
तो मीठे बोल से धोखा कभी खाया नहीं होता

तुम्हारा कल हमारे आज में पैबस्त ही रहता
तो मेरा आज मुझको इस तरह भाया नहीं होता

झुका था आसमां बढ़ कर ज़मीं भी बांह फैलाती
धुंधलका दरमियां उनके कभी छाया नहीं होता


Friday, April 15, 2011

लुका छिपी

लुका छिपी के तमाशे में हारती क्यूँ थी
वो छुप के मेरे दरीचे में झांकती क्यूँ थी

नज़र थी तेज तो चेहरा था सांवला उसका
खुशी में जोर से मुझको वो मारती क्यूँ थी

मिला न पाई हया से मेरी नज़र से नज़र
मुझी से पहले मेरे ख्वाब जानती क्यूँ थी

वो सज संवर के निकलती थी जब मेरी जानिब
गुदाज़ हांथों से चेहरे को ढांपती क्यूँ थी

करीब जाके मेरी माँ के उसके आँचल से
छुपा के आँख वो मुझको निहारती क्यूँ थी

मैं रो रहा हूँ तो बस उसकी चश्मे नम के सबब
कहे बगैर मेरे कर्ब जानती क्यूँ थी

Thursday, April 14, 2011

अब मातम नहीं

वक़्त से अच्छा कोई मरहम नहीं
आंसुओं जैसा कोई हमदम नहीं

क्या जरूरी है मुनव्वर हम भी हों
रोशनी सूरज की सर पे कम नहीं

बाप बेटे की चिता को आग दे
इस से बढ़ कर तो जहां में गम नहीं

लूट कर हमको हँसे मुह फेरकर
वो हमारा कायदे आज़म नहीं

एक अन्ना अब नहीं थोथा चना
वक़्त की यलगार है बेदम नहीं

अजम उनका देख लो आगे बढ़ो
आप का दम भी किसी से कम नहीं

सेंक मत रोटी सियासत दान अब
हमसे ही तो तू है, तुझसे हम नहीं

शान्ति हो पर हो नहीं शमसान सी
हो खुशी चेहरों पे अब मातम नहीं

Saturday, April 2, 2011

वक़्त पुराना अच्छा लगता है


तुमको अपने पास बुलाना अच्छा लगता है 
तेरा अब हर झूठ, बहाना अच्छा लगता है 


मुझको अपना वक़्त पुराना अच्छा लगता है
बीते कल को तुम्हे छुपाना अच्छा लगता है

कितना अपनापन था, करके याद पुराने दिन 
आँखों में आंसू का आना अच्छा लगता है  

आज नुमाया हो तुम, सब को अच्छे लगते हो
अपनों से मक्खन लगवाना अच्छा लगता है 

जिसकी खातिर अपनों को भी दुत्कारा, छोड़ा 
उसको दुनिया अलग बसाना अच्छा लगता है 

फुरसत में गणना करना क्या खोया क्या पाया 
मुझको सब खोकर कुछ पाना अच्छा लगता है 

जिसने तुमको इंसां करके दुनिया से जोड़ा 
तुमको उसको खूब रुलाना अच्छा लगता है 

कितनी विकृत सोच तुम्हारी, सत्तर के होकर 
खुद को पैतीस का कहलाना अच्छा लगता है