Saturday, January 29, 2011

ये तो लड़की है

एक बुलबुला
उतराने को उतावला, बेखबर
अपने अस्तित्व से
आया जब ऊपर
एक आवाज के साथ
मिट गया उसका अस्तित्व
......................
मैं भी थी बहुत उतावली
बाहर आने को
माँ की कोख से
आयी......
लगा जैसे रात की कोख से
जनम लिया
एक नन्ही सुबह ने
शबनम की बूँद की तरह
मैंने माँ के चेहरे पर कौतूहल भरा
एक प्रश्न चिन्ह देखा था
किसी ने मुझे हिलाया, डुलाया
और फिर दिखी
एक निराशा की झलक
उसके चेहरे पर
पर किसी ने जाने क्या कह दिया
शबनम की आँखों से बह निकले आंसू 
मेरे श्रवण-पटल पर 
कुछ शब्द उकेर दिए गए
"ये तो लड़की है"
और फट गया बुलबुला
इसी आवाज़ के साथ
तब से लेकर अब तक
जीवन के हर पल
श्रवण पटल पर उकेरी गयी
वह आवाज़
सदैव मुझे सुनाई पड़ती है
"ये तो लड़की है"
किसी के चेहरे पर
मुझे खुशी का भाव नहीं दिखा
सब के सब मातम में डूबे थे
और ये शब्द मुझे सब के चहरों पर
मेरे ही खून से लिखे दिखाई दिए
"ये तो लड़की है"
........
बड़ी होती गयी मैं वक़्त के साथ
और बढ़ता गया एक एहसास
कि नहीं हूँ मैं किसी की चाहत
श्रवण पटल पर उकेरे वो शब्द
अब मानस पटल पर अंकित हो गए हैं
जब होती हूँ बाबा के पास
देखती हूँ असीम प्यार उनकी आँखों में
पर कुछ और भी होता है उनमे
समझने लगी हूँ अब मैं उस बेबसी को
लगता है रो देंगे
अगर रुकी मैं थोड़ी देर और उनके पास
चल देती हूँ पर बाबा पकड़ लेते हैं हाँथ
और सीने से लगा
बहा ही लेते हैं अपने आंसू
मेरे अंदर उबलने लगता है
एक ज्वालामुखी
चाहती हूँ, भस्म कर दूँ
उन सारी व्यवस्थाओं को
जो बाप और बेटी के बीच
बो देती हैं आंसू
............
कभी हलके पलों में
माँ बाबा के बीच बैठी मैं करती हूँ सामना
एक परम आत्मीय प्रश्न का
"बोल गुडिया, किसकी बेटी है, बाबा की या माँ की?"
मेरे अंतर्मन चीत्कार करता है
कहता है कि मैं नहीं हूँ किसी की
पर बोल नहीं पाती
अनायास मिले उन पलों को खोना नहीं चाहती
हंस देती हूँ और मेरे दोनों गालों पर
चिपक जाते हैं चुम्बन
रो देती हूँ मैं खुशी से
पर जल उठती हूँ अंदर से
जी करता है जोर से चिल्लाकर कहूँ
"मैं लड़की नहीं हूँ ... मैं अपने माँ बाबा की गुडिया हूँ"
":मैं तो बिटिया हूँ "





Wednesday, January 26, 2011

जुगलबंदी

जो मुझको देख घूँघट आपने सरका दिया होता
तो मेरी हर वफ़ा क़े क़र्ज़ को चुकता किया होता

नहीं मरता है कोई भी किसी क़े रूठ जाने से
मुझीसे रूठ कर इस बात को झुठला दिया होता

लगे जब आग गुलशन में, पतंगे तब कहाँ रुकते
चले जाते मगर ये फलसफा समझा दिया होता

नहीं  हैं आप मेरे बात ये मैं मान लूं कैसे
भले गैरों में ही पर आपने चर्चा किया होता

तुम्हे भाती है रोने और हंसने की जुगलबंदी
हमें ये शौक अपना ऐ खुदा बतला दिया होता 

Sunday, January 23, 2011

गमखार



नाचना कठपुतलियों सा पड़ रहा सरदार को 
एक गुड्डे ने नचा के रख दिया सरकार को 

गांधारी को खुली आँखों से भी दिखता नहीं 
ब्यूह रचना में लगी अभिमन्यु के संहार को 

घर से बेघर हो गए तो भी हमें कुछ गम नहीं
रौजने दीवार से देखा करेंगे यार को 

भीड़ में तनहा खडा मैं ढूंढता जाने किसे 
काश कोई पास मेरे भेंजता गमखार को 

जोर की बारिश मेरे सर पे न गिरती बूँद भी 
मैं तरसता हूँ तुम्हारी रहमतों की धार को 

आँख हो जाए समन्दर तो जिगर फौलाद कर 
रोक मत अन्दर से तेरे उठ रही हुंकार को 

"शेष" ने जो कह दिया वो हर्फे आखिर है नहीं
कर बयां मत रोक अपने ज़ज्बा-ए दमदार को 

फ़तह


देश की जनता मुसीबत में अगर मिल जायगी 
चाह लेंगे हम अगर तो ये जमी हिल जायगी 

देश के जन जन से औ कण कण से मुझको प्यार है 
ये कहे तो देश द्रोही की जुबां छिल जायगी 


जब पढ़ेगा गम खुशी कितनी लिखी तकदीर में 
जानता हूँ सोग की गिनती अधिक मिल जायगी 

एक पल की बदगुमानी टीस देती उम्र भर  
जीत लो इस पल को गर किस्मत तेरी खिल जायगी  

आजमाइश बंद कर दे अब तो मुझ पर ऐ खुदा 
"शेष" को हर इम्तहां में फिर फ़तह मिल जायगी 

Friday, January 21, 2011

गुमां बेकार है

जो नहीं होता है ये सरकार जिम्मेदार है
विश्व की आलोचना का आप को अधिकार है 

आज संगम के किनारे कडकडाती ठण्ड में
मुक्ति पा लेने को बूढी जान के बीमार है

पूज के पत्थर हमें इन्सां को खुश करना पड़े
संग से भी संगदिल इंसान को धिक्कार है

एक मुट्ठी रेत सी है हाथ सबके ज़िंदगी
फिर न जाने क्यूँ कहे हर एक वो सरदार है

जब तड़प कर बोलता सिन्दूर रुकने क़े लिए
चाह का दीदार से होता शुरू अभिसार है

सिसकियाँ लेकर कहे श्रृंगार जब दिल की ब्यथा
अनसुनी करना इसे इक असंभव आचार है

दर्द दिल का बढ़ चुका इतना सहन होता नहीं
धडकना इसका रुके ये भी मुझे स्वीकार है

बारहा आँखों को धोने से तो कुछ होगा नहीं
छुप गयी पर यूँ न रुकती आंसुओं की धार है

रात जब करवट बदलती दर्द से बेहाल हो
तब गुलों क़े बीच लेती मधुकली आकार है

फूल का शव देख कर इक सिहर जाती है कली
जिन्दगी बस मौत का चलता सा कारोबार है

एक दिन में तो मुकम्मल शायरी होती नहीं 
"शेष" जैसे तालिबों का ये गुमां बेकार है 


Wednesday, January 19, 2011

आबरू

किसी तालाब में तो जज्रोमद आते नहीं देखा
कभी भी तंगदिल को जरफ़िशाँ होते नहीं देखा 

दिखाई हैं पड़े इंसान की शक्लों में भी बहशी 
किसी भी जानवर को आजतक हँसते नहीं देखा

गलत होते बहुत से फैसले मुंसिफ के भी लेकिन
कटघरे में तो मुंसिफ को खड़े होते नहीं देखा 

सदा से पूर्वजो के पुण्य का फल भोगते हैं जो  
उन्हें उन पूर्वजों के फ़र्ज़ को ढोते नहीं देखा 

सियासत में लगा करते रहे हैं दाग दामन पे 
इन्हें अच्छे करम करके कभी धोते नहीं देखा 

सही जाती नहीं जब भूख बच्चों की, तभी बिकती 
कि मुफलिस को खुशी से आबरू खोते नहीं देखा 

जज्रोमद - ज्वार-भाटा 
जरफ़िशाँ - दरियादिल, दानी 



Saturday, January 15, 2011

खुदा की मार

दिलासा बाप की माँ की दुआ बेकार लगती है
जो बेटी हो दुखी तो हर हंसी बीमार लगती है 

हमारे सुख में मेरे साथ जो रहते थे अब उनको 
मेरे दुःख में मेरी हर बात अब मनुहार लगती है `

गरीबी जब घने जंगल में रस्ता भूल जाती है  
रखी काँधे पे लकड़ी ही चिता तैयार लगती है 

घने बादल बरस जाने को जब बेताब होते हैं
गरज उनकी गरीबों को खुदा की मार लगती है 

हमारी बेहिसी से दम घुटा जाता है कुदरत का 
हमें हर मुल्क की आबो हवा बीमार लगती है 

हमें लिखना नहीं आता हमें पढना नहीं आता
तरक्की में यही रस्ते खड़ी दीवार लगती है 

किसी बेवा औ बिनब्याही में इतना फर्क होता है 
कि इक की नौकरी छूटी है इक बेकार लगती है        

Thursday, January 13, 2011

कब्रों में मुर्दे कहते हैं

आँखों में सपने बसते हैं
आँसू भी हंसने लगते हैं

कितना है आराम यहाँ पर
कब्रों में मुर्दे कहते हैं

जिंदा रहने की कोशिश में
हम जाने कितना मरते हैं

दुनिया रहने क़े नाकाबिल
फिर भी तजने से डरते हैं

फ़र्ज़ निभाना मुश्किल इतना
इक दूजे का मुह तकते हैं

उसने तो इंसान बनाया
हम हिन्दू मुस्लिम बनते हैं

मिट्टी क़े घर होते जिनके
उनके घर ईश्वर रहते हैं

पी कर दूध ज़हर उगले जो
उसको ही बिषधर कहते हैं

मेरी माँ

स्नेह सिक्त मुख मंडल
आँखें समुद्र सी गहरी
ज्यों देख रही हो छितिज क़े उस पार
तेज ऐसा की सूरज को भी ढाढस दे
चेहरे का संतोष भाव ऐसा
जैसे दिया हो सृष्टि को अभयदान
मुस्कराहट ऐसी जैसे अभी अभी 
दिया हो विधाता को
सृष्टि संचालन का पूर्ण ज्ञान
गुरुता का विश्वास
जैसे देवता लगाए हों आस
की सर पर रख कर हाँथ,
सभी को देगी आशीष

ऐसी तेजस है मेरी माँ
पल्लू क़े कोने बंधे
कुछ नोट और कुछ सिक्के
सदैव समर्थ, सब क़े लिए
किसी को भी आवश्यकता हो
सबसे पहले जाता है हाँथ उसका
खूंटे गठियाई अपनी अक्षय पूंजी पर
खोल देती है खजाना कुबेर का
ऐसी धनी और संपन्न है मेरी माँ
सामने उसके जब भी पडून
एक प्रश्न खड़ा रहता है
शास्वत सत्य सा
"कुछ खाया ?" 
"हाँ माँ" सुनके 
मिट जाती है भूख उसकी
कितनी चिंता रहती है उसे
मेरे बच्चों की
प्रतिदिन वही सवाल
कुछ हाल चाल मिला?
फोन आया था?
फ़ोन किया था?
पर लगता है जैसे पूँछ रही हो पहली बार.
बच्चों से बात करने को
हांथो में फोन लेते ही
समाप्त हो जाता है नियंत्रण उसका
अपने आंसुओं पर
पर उसके वो आँसू भी
हँसते हुए लगते हैं.
ऐसी ममतामयी है मेरी माँ

Wednesday, January 12, 2011

सांपो क़े फन मरोड़ सकता हूँ

तुम्हारी बेहिसी से थक क़े मैं मुह मोड़ सकता हूँ
खुदा तुमसे कई जन्मो का रिश्ता तोड़ सकता हूँ

लहू मेरा अगर मेरे वतन क़े काम आ जाए
मैं सारा जिस्म अपना अपने हाँथ निचोड़ सकता हूँ

सुनाती थी कहानी एक नानी जो मुहब्बत की
सुना क़े मैं उसीको आज सब को जोड़ सकता हूँ

हकीकत जो हमें मालूम है रस्मे सियासत की
बयाँ कर दूँ अगर सारा निजाम झिझोड़ सकता हूँ

मेरे बच्चों को मेरे पास क़े लोगों से खतरा हो
तो मैं इंसान क्या सांपो क़े फन मरोड़ सकता हूँ

Tuesday, January 11, 2011

आदमी

मैं कभी उस आदमी को आदमी न कह सका
बन गया खुद से बड़ा पर आदमी न रह सका

धौंस साहिल पे समंदर जमाता रहता मगर
एक पल भी दूर साहिल से कभी क्या रह सका

चाँद सूरज के सहारे ही चमकता है मगर
क्या वो सूरज को ग्रहण का दुःख दिए बिन रह सका

कर रहा परवाज सच से बेखबर, पाले भरम
बाज़ भी महफूज़ जंगल में कभी क्या रह सका

मौत सच है, जिंदगी है इक भरम, ये सत्य है
क्या कभी हंस कर कोई ये जिन्दगी से कह सका

Monday, January 10, 2011

मैं झूठ बोलता हूँ

ऐ दोस्त मेरे, मिला न कुछ तेरा हाल चाल
तू खुश तो है, बच्चे तेरा रखते तो हैं ख़याल
मैं स्वस्थ हूँ और ठीक हूँ, चिंता न करो तुम
ईश्वर करे ऐसे ही सदा सुखी रहो तुम
मैं चैन से सोता हूँ, बेफिक्र सारी रात
घर मेरे होती सदा ही खुशी की बरसात
मैं दे न सका खुशियाँ बच्चों को बेशुमार
मैंने कभी नहीं लिया इनके लिए उधार
पर बच्चे मेरा बहुत ही ख़याल रखते हैं
पोतों को मेरे पास ही हर हाल रखते हैं
भाई तो मेरे, मुझसे कुछ माँगते नहीं
देते हैं मना करो तो भी मानते नहीं
बीबी तो मेरी मस्त है, अपने ही हाल में
उसको क्या फिकर खोये मेरे ख़याल में
सब रिश्तेदार लेते हैं बराबर हाल चाल
मिलजुल के सब रखते हैं बूढ़े का ख़याल
तुम से क्या छुपा यारा, सब जानते हो तुम
बचपन के दोस्त हो, मुझे पहचानते हो तुम
इसके आगे और कुछ मैं लिख नहीं सकता
तकिये के सहारे देर तक टिक नहीं सकता
तुम ही तो हो, मैं जिससे हर राज़ खोलता हूँ
तुम जानते हो, कितना "मैं झूठ बोलता हूँ "

Sunday, January 9, 2011

कौरव का संहार करो

मेरे मित्रो आज लिखो कुछ ऐसा तुम हुंकार भरो
ॐ शान्ति बहुत हुआ अब शब्दों में अंगार भरो 
समय आ गया अब माता सीता का हरण नहीं होगा
अब तो रावण का उसके सिंघासन पर संहार करो 
तुम्हे किया मजबूर घास की रोटी ही जब खाना है 
बन जाओ राणा प्रताप चेतक अपना तैयार करो
बनो भाइयों बीर शिवा जी खड्ग म्यान से खीचो तुम 
बहनों झांसी की रानी बन दुश्मन का प्रतिकार करो 
हिरनकश्यप घूम रहे अब गली गली खोजो इनको
बन चंडी तुम बधो इन्हें अब इनका भी उद्धार करो  
शर शैया पर लेट पितामह देख रहें हैं चुप सब कुछ
संजय बन न कथा सुना ध्रितराष्ट्र पे सीधा वार करो
गांधारी का पुत्र मोह ले डूबेगा हमको तुमको
दुर्योधन की कुटिल चाल को समझो, सपने तार करो 
अभिमन्यु से कब तक घिरे रहेंगे चक्रब्यूह में हम
बन अर्जुन अब मोह तजो दुश्मन पर बाण प्रहार करो  
मामा शकुनी खेल खेल में लूट चुका है हम सब को 
लेकर सब चम्पत हो इससे पहले इस पर मार करो 
अब अपने भारत में फिर से होगा नहीं महाभारत 
लक्षागृह जलने से पहले कौरव का संहार करो  

Friday, January 7, 2011

जाइए हटिये

कभी होते हैं खुश तो बोलते हैं जाइए हटिये
कभी नाराज हो के भी कहें की जाइए हटिये

कभी ऐसा नज़ारा भी दिलों के बीच होता है
पकड़ के हाथ कहते मुस्करा के जाइए हटिये

मुसलसल इक ग़ज़ल मैंने कही उनकी अदाओं पर
पढ़ा तो चाव से, बोले की ये क्या लिख दिया, हटिये


इशारे से बुलाया, पास जाके  हम बहक बैठे
छुआ जो हाँथ बोले हाय! ये क्या कर दिया हटिये

खड़े थे आइने के सामने, देखा मुझे, बोले
पडा था आँख में कुछ, देखती थी, जाइए हटिये

अचानक जो उन्हें मैंने लिया बाहों में तो बोले
किसी दिन आप मुझको मार ही डालेंगे क्या, हटिये

नजर मिलती रही, मैं पास पहुंचा, खीझ कर बोले
की कोई देख लेगा दूर रहिये जाइए हटिये

सूरज हमें बीमार लगता है

गए मौसम सरीका आज अपना प्यार लगता है
पड़ोसी की वसीयत सा मेरा घर बार लगता है

कहाँ से लायें हम जज्बों में वो रूहानियत कल की
कि अपने में हमें कोई छुपा अय्यार लगता है

जिसे देखो उसी की आँख रोई सी लगे हर दम
कमाना और खाना भी कोई व्यापार लगता है

हमारी बेहिसी से दम घुटा जाता है कुदरत का 
न जाने क्या हुआ सूरज हमें बीमार लगता है

सचाई को बयाँ करने का दम ख़म है बचा किसमे
हमें नारद की बीना का भी ढीला तार लगता है



Thursday, January 6, 2011

आँख पे पर्दा

जब तक हमारी आँख पे पर्दा पड़ा होगा
बन क़े हमारा रहनुमा तू ही खड़ा होगा

सूरजमुखी गर खुद से सीख जाएगा खिलना
सूरज किसी कोने छुपा क़े मुह खड़ा होगा

हमको हमारी जात बताने का शुक्रिया
तुमको तुम्हारी जात का टोटा पड़ा होगा

क्यूँ तुम बताते हो किसी की भूख कितनी है
अबकी मुकाबला क्या जादा कड़ा होगा

मेरी कमाई पर तुम्हारी है नजर लेकिन
अपनी जमा पूजी पे हंगामा खड़ा होगा

भूखा मरे कोई तुझे क्या फर्क पड़ता है
गोदाम अन्नों से भरा तेरा सडा होगा

वोट की परवाह

जय सोनिया जय सोनिया जय सोनिया
मनमोहना तेरे बिना कुछ भी नहीं है सोनिया
तू क्यों बना ध्रितराष्ट्र मनमोहन समझता क्यूँ नहीं
तुझको दिया अधिकार जनता ने  बरतता क्यूँ नहीं
गांधार की भगिनी बनी बैठी है जो सर पर तेरे
राहुल बिठाना चाहती वो क़तर देगी पर तेरे
तेरे बिचारे सांसदों की बुद्धि को क्या हो गया
सब चाटुकार बने लगे युवराज पी एम हो गया
मौका कोई भी झूठ को सच बोलने का ढूंढते 
हमको तो क्या इसके लिए वो खुद को भी हैं मूड़ते   
मुह तेरा उनकी जीभ है ये वोट भी क्या चीज है
तेरे लिए तो देशद्रोही देश भक्त अज़ीज़ है
कातिल तुम्हे मासूम लगते खूब है दरियादिली
न न्याय की परवाह न ईमान की शिक्षा मिली
तुमको तो फिरकापरस्तों क़े वोट की परवाह है
चमचों को तेरे तेरी खातिर नोट की बस चाह है

Wednesday, January 5, 2011

रिश्ते

निजी रिश्ते हमेशा चूक होने पर बिगड़ते हैं
घरों की इन दरारों में फनीले सांप पलते हैं

हमारे हो हमेशा ही हमारे तुम रहो, सुन लो
अना की जंग झुक क़े हारने को जीत कहते हैं

दरीचों को खुला रक्खो मिलेगी बाग़ की खुशबू
घमंडी लोग बातों को कहाँ जल्दी समझते हैं

दिखाया चाँद को हंसके जो इक दिन आइना तुमने
न समझा चाँद भी क्यूँ लोग उस पर रश्क करते हैं

हमारी रूह-जेहन में सदा चलती महाभारत
हमारा क्रोध दुर्योधन भरम को भीष्म कहते हैं

किसी को देखना हो गर तो आँखें मूँद कर देखो
की अक्सर लोग चेहरों पे भी चेहरे ओढ़ लेते हैं

कभी आँखों दिखी कानो सुनी से हट क़े भी सोचो
की बहरों नाबिनों की आँख से भी अश्क बहते हैं

चलो उन्ह बेमियादी मुश्किलों का दौर तो गुजरा
समझदारी दिखाई है तभी तो आज हँसते हैं

कभी तो दूसरों की जिंदगी को ज़िन्दगी समझो
जिया जो बेमुरव्वत सब उसे शैतान कहते हैं

लोकतंत्र

कभी देखा है क्या दस्तार का ताजिर जमाने में
तू अपनी आबरू को रख बचा के आशियाने में

गरीबों की दुवाओं से वो बनना चाहते पी एम
यही मंशा लिए आते हैं गाँव, गरीबखाने में 
 
हमें तो दिख रहे हर शाख पर बैठे हुए उल्लू 
लगे हैं रहनुमा सारे हमें उल्लू बनाने में 
 
खड़े होते हैं जोड़े हाँथ जब भी वोट लेना हो 
हुकूमत पा गए फिर क्या रहम डंडा चलाने में 

हमें मूरख समझते हैं नहीं इनको शरम आती
मजा आता है इनको प्याज के आंसू रुलाने में
 
बड़े खुश्बख्त हैं वो दश्त जिनका आशियाना "शेष "
शहर का हाल तो अब है अयाँ हर इक फ़साने में

Sunday, January 2, 2011

जिन्दगी


ये गगन झुकता है धरती से मिलन की चाह से
बांह धरती की मगर खुलती है कब किस राह से

छाँव जो अठखेलियाँ करती लिपट कर धूप से 
दोस्ती  ये है पुरानी चाह की परवाह से 

जो सफल हैं करो उनका ही सदा तुम अनुकरण 
थाह सागर की नहीं मिलती नदी की थाह से 

समय जा कर फिर कभी भी लौट कर आता नहीं 
वर्ष को चाहो शुरू कर लो किसी भी माह से 

धूप से तो बच गयी चिड़िया फंसी कमरे में अब  
चोंच खिड़की पर पटकती और डरती छाँह से 

चाँद है गर आसमां पे इस जमीं पे तुम तो हो 
क्यूँ सितारे इस जमीं क़े घूमते गुमराह से  

बीच में सुख और दुःख क़े है ये पसरी जिन्दगी
करवटें तो बदलती है पर खुदा की चाह से 

Saturday, January 1, 2011

जनतंत्र

जनतंत्र
चौपाई : १६:१६

रहे गुलाम कई बरसों तक | उगा नहीं पाए सरसों तक
करते रहे नील की खेती | जो न पेट भर रोटी देती 
लड़ कर सत्य अहिंसा क़े बल | मुश्किल से आया था वो पल
जब ये देश स्वतंत्र हुआ था | अपना ये जनतंत्र हुआ था 
थे कुछ लोग संकुचित मन क़े | काट दिए टुकड़े निज तन क़े 
हुआ विभाजित देश हमारा | अपनों को अपनों ने मारा 
देश हमारा हमको प्यारा | अपनों से ही ये भी हारा 

कर्म नहीं गांधी सुभाष से | फटके भी न आस पास से
फिर भी हम सीना चौड़ा कर | देते भाषण सजे मंच पर
हों सिद्धांत और पर लागू | अपने बने रहें बड़ भागू
जय जन तंत्र-देश का अपने | कितने मधुर दिखाता सपने
देश हुआ आज़ाद कहें हम | वादों पर ही टिके रहें हम
सत्ता की ऐसी परिपाटी | आपस में ही मिलकर बांटी
जनता मूरख है भोली है | उसके हिस्से बस गोली है
यहाँ स्वयंभू राजा बनते | लोकतंत्र को ऐसे ठगते
वाद चले भाई भतीज का | मोल नहीं है किसी चीज का
आप अगर नेता बन जाएँ | अनपढ़ हों सिरमौर कहाएँ
अपराधी विधि-मंत्री बनते | शहर शहर में बंगले तानते
प्रजा-तंत्र में प्रजा दुखी है | घूसखोर औ चोर सुखी है
जनता क़े घर फांके पड़ते | गोदामों में बोरे सड़ते
जय जय जय परदेसी माई | तू क्या आयी शामत आयी
मनमोहन सब क़े मनमोहन | हँस क़े करवाते निज दोहन
जय युवराज तुम्हारे भाषण | कितना है तुझमे आकर्षण
तुमने नहीं बोलना सीखा | बोले जहाँ बालपन दीखा
तेरे चाटुकार मंत्रीगण | रंग बदलते हैं जो हर क्षण
उनको हे ईश्वर सन्मति दे | उनकी बुद्धि, समझ को गति दे
जय राजा जय जय कलमाडी | अपना चूल्हा अपनी हांडी
चूस लिया तुमने जनता को | मनमोहन की निस्फलता को
जय जय जय जय जय अमरीका | लगा ओबामा माथे टीका
सोचो क्या खोया क्या पाया | उसने तुमको खूब बनाया
दोहा: १३:११
कथा आज की बस यहीं, करते हैं हम बंद |
फिर आयेंगे हम कभी, लेके दूजे छंद ||
करो भाइयों आप भी, सार्थक एक प्रयास |
भाँती भाँती क़े छंद की, हमें आप से आस ||
सोरठा: ११:१३
हमें आप से आस, करें बढ़ चढ़ कर रचना
बने ओबिओ ख़ास, प्रयास रहे ये अपना