Thursday, September 1, 2011



जब ग़ज़ल का हर अहम मिसरा अहं से चूर है
क्या करे शायर बिचारा वह बहुत मजबूर है


भागता है सूए सहरा आब की ख्वाहिश लिए
है नहीं मंजिल, समझता है कि मंजिल दूर है


था गुमां, मैं भी बनूँगा मीर, पुर जोशे निहाँ
पर कम इल्मी से हर ऐसा ख्वाब चकनाचूर है


क्या बिना उस्ताद बन सकता है कोई फन शनास
ताब से खुरशीद की महताब भी पुरनूर है


नक्श पाए रहनुमा होते तेरे पेशे नज़र
फख्र से कहता मेरी ग़ज़लों में दम भरपूर है





1 comment:

  1. वाह पहली बार पढ़ा आपको बहुत अच्छा लगा.

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