Sunday, November 7, 2010

अवहेला

करती है तैयार तुम्हे दिन भर कि कठिन यात्रा को
क्यूँ उसके श्रींगार का तुमने यूँ ही तिरस्कार कर दिया
क्या उषा अब उद्दीपन का साधन बन रह जायेगी
क्यूँ संध्या के माथे में इतना सारा सिन्दूर भर दिया

तेरी अवहेला को अब वो और नहीं सह पाएगी
माँग सजाने को दूजे की साधन नहीं जुटाएगी
जिस दिन उसने आँख मूद ली तू अंधा हो जाएगा
फिर संध्या का इंतज़ार कितना लम्बा हो जाएगा

4 comments:

  1. सुन्दर रचना. शुभकामनाएं

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  2. ......... प्रशंसनीय रचना - बधाई

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  3. Thanks to all.
    Sanjay Ji, thanks for following. I will certainly vist your blog and follow too.

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